गीतों का गिरता स्तर बहुत ही चिंता का विषय है, बचपन से हमें प्रेम, समर्पण, निष्छल प्रेम भाव, समभाव सिखाया गया है, परन्तु आज नैतिक मूल्यों, नैतिक शिक्षा का पतन होता देश दुःख होता है,एक गाना आता है कि लेके से parada नहीं तो दूसरा ढूंढ लूंगी,वहीं दूसरा गाता है डूब के मर जा, यह हम प्रेम को किस ओर ले के जा रहे हैं ?
भौतिकतावाद के युग में प्रेम भी महज़ भोग विलास की वस्तु बन के रह गया है। कहां हमें यह सिखाया जाता था कि प्रेम सिर्फ़ एक बार होता है,सभी से प्रेम करो और आज कहां हमें गीतों के नाम पे दारू, बंदूक, लड़कियां परोसी जा रही हैं और शायद सरकारें, सेंसर बोर्ड, एन जी ओ, सामाजिक संगठन भी स सो गए लगते हैं, सोएं भी क्यूं ना,क्यूं की सभी हाथी जो हो गए या बन गए हैं, जिनके दांत खाने के कुछ और, दिखाने के कुछ और।
इस से भी ज्यादा दुःख उन माता पिता को देख के होता है जो छोटे छोटे बच्चों के हाथों में मोबाइल फ़ोन पकड़ा देते हैं बिना परवाह किए की बच्चा क्या देख रहा है या कर रहा है और इसी कारण से सुनने में आता है कि आठ वर्ष के बालक ने छह वर्ष की बच्ची का बलात्कार किया,या महज़ १३-१४ वर्ष की आयु में बालिका गर्भवती हुई । मुझे पता है मेरे इस लेख से शायद समाज में कुछ नहीं बदलेगा, परन्तु इंसान को इंसान, आदमी को आदमी, मनुष्य को मनुष्य समझना तो हम बचपन से अपने बच्चों को सीखा ही सकते हैं, इतना ही नहीं, हम उन्हें बचपन से सही गलत का बोध तो करा ही सकते हैं।
#सोचिएगाज़रूर #abhishekism #इक्छोटासाकवि
भौतिकतावाद के युग में प्रेम भी महज़ भोग विलास की वस्तु बन के रह गया है। कहां हमें यह सिखाया जाता था कि प्रेम सिर्फ़ एक बार होता है,सभी से प्रेम करो और आज कहां हमें गीतों के नाम पे दारू, बंदूक, लड़कियां परोसी जा रही हैं और शायद सरकारें, सेंसर बोर्ड, एन जी ओ, सामाजिक संगठन भी स सो गए लगते हैं, सोएं भी क्यूं ना,क्यूं की सभी हाथी जो हो गए या बन गए हैं, जिनके दांत खाने के कुछ और, दिखाने के कुछ और।
इस से भी ज्यादा दुःख उन माता पिता को देख के होता है जो छोटे छोटे बच्चों के हाथों में मोबाइल फ़ोन पकड़ा देते हैं बिना परवाह किए की बच्चा क्या देख रहा है या कर रहा है और इसी कारण से सुनने में आता है कि आठ वर्ष के बालक ने छह वर्ष की बच्ची का बलात्कार किया,या महज़ १३-१४ वर्ष की आयु में बालिका गर्भवती हुई । मुझे पता है मेरे इस लेख से शायद समाज में कुछ नहीं बदलेगा, परन्तु इंसान को इंसान, आदमी को आदमी, मनुष्य को मनुष्य समझना तो हम बचपन से अपने बच्चों को सीखा ही सकते हैं, इतना ही नहीं, हम उन्हें बचपन से सही गलत का बोध तो करा ही सकते हैं।
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